फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन/स्पीच (Freedom of Expression/Speech)
शशि थरूर और महुआ मोइत्रा विपक्ष की प्रखर आवाज हैं। अधिकांश मुद्दों पर उनके विचार प्रगतिवादी होते हैं, परंतु काली फिल्म के संदर्भ में उनकी राय उचित नहीं प्रतीत होती। विभिन्न संस्कृतियों में काली के भिन्न भिन्न रूपों की उपासना निर्विवाद है, काली के मांसाहार और मद्यपान के रूप की कल्पना भी संभव है। किंतु काली को माता मानने वाले लोग भी तो हैं, एकबार उनके बारे में भी सोच लीजिए। आस्था और मनोरंजन दो भिन्न विषय हैं। आस्था और मनोरंजन अथवा फ्रीडम ऑफ स्पीच के मध्य में एक लकीर का होना आवश्यक है। आपकी फ्रीडम ऑफ स्पीच यदि अनेक लोगों को कष्ट पहुंचाकर संतृप्त होती है तो आप सेडिस्ट (sadist) हैं। लोगों के काली के प्रति विरोध को एक और उदाहरण से समझते हैं, वर्ष 1983 में आई एक फिल्म (किसी से मत कहना, निर्देशक: ऋषिकेश मुखर्जी) जिसमें पटकथा की रोचकता के लिए हनीमून होटल को हनुमान होटल बना दिया गया था। वर्ष 2018 में उसी दृश्य का उद्धरण लेकर ऑल्ट न्यूज़ के पत्रकार जुबैर ने मोदी से पहले के प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल को हनीमून और मोदी के कार्यकाल को हनुमान बताते हुए ट्वीट कर दिया। भारत के अनेक बहुसंख्यकों को ये बात अनुचित प्रतीत हुयी तो अनेक विद्वान ये जस्टिफाई करने लगे की ये बात तो वर्ष 1983 की है इसपर हल्ला मचाने की क्या आवश्यकता आन पड़ी ? तनिक सोचिए आज से 20 वर्ष बाद जब कोई जुबैर, काली के ऐसे किसी पोस्टर को लेकर अपने फ्रीडम ऑफ स्पीच का प्रयोग करेगा तो तब के लोगों को भी यही समझाया जाएगा की ये तो 2022 में आई एक फिल्म का हिस्सा है। तात्पर्य यह है की 1983 की स्वीकार्यता का बदला 2018 में धर्म विशेष के लोगों के लिए अप्रिय टिप्पणी के रूप में मिलता है। इस परिस्थिति में धर्म के अनुपालकों द्वारा ऐसी किसी भी धर्म आधारित फिल्म के ऊपर संशय होना तथा विरोध होना संभावित ही है। ईमानदारी से फ्रीडम ऑफ स्पीच का धर्मों के संदर्भ में दुरुपयोग बंद होना चाहिए। कोई भी स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं होती, फ्रीडम ऑफ स्पीच भी नहीं।
© अमित तिवारी
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