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गंवई पंचाइत

एक बार फिनौ पंचाइत के, पुरवा के लोग इकट्ठा बा  बियहा एकड़ के बात नाइ, दावन पे एक एक लाट्ठा बा  आबादी चक तो सुलटि जाय, पर मसला यहिं के पट्टा बा ।।  यहि पुरवा के कुलि प्राणिन के, एक दूसरे से मन खट्टा बा  केउ सुनत नाइ सब खोलि रहे, दुसरे के कच्चा चिट्ठा बा ।।  कानूनगो अउ लेखपाल, समझाई भयेन अरु गयें हारि भागेन दुइनौ जन घर अपने, मसला परधान के तरे डारि ।।  परधान और कुछ पंच लगे, तब सुनइ कुलिन के कान पारि कउनो के मसला घर दुआर, कउनो के झंझट अहइ सारि केउ कहे की वो बेईमान हैन, ऊ कहै वो हमका देहें मारि ।।  पुरवा के कटका धिंगरी से, परधानौ तब ई गयेन समझि  परधान और पंचाइत से, इ बात कबहुँ पाए ना सुलझि पद बोले से सब मनिहैं न, अउ मसला जाये और उलझि ।।  एकर दुइयै पैराया बा, या तो आपस में लेईं बूझि  नाहित दौरें तहसीली में, अउ कगजेन से सब लेइँ जूझि ।।  © अमित तिवारी (ये रचना 9 जुलाई 2021 को लिखी गयी। कल 8 जुलाई 2021 को गांव की ही एक पंचायत में जाने का मौका मिला, ये कविता उसी घटनाक्रम का कलमबद्ध रूपांतरण है। आज भी गाँवों में पंचायते होती हैं लेकिंन अधिकांश में परिस्थितियां उपरिलिखित पंक्तियों जैसी ही होती हैं