चुनावी मित्रता चातुर्य (30 मार्च 2016 )

एक बार पुनः चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। चार राज्यों पश्चिम बंगाल, असम, पुडुचेरी और तमिलनाडु में सत्ताधारी दलों की साख दांव पर है। चुनाव की तिथियों के निश्चित होने के साथ ही, जैसा की पूर्व के ७० वर्षों से होता आया है, नए मित्रों तथा चुनावी मित्रों की तलाश आरम्भ हो चुकी है । आज इस चुनावी मित्रता के अन्वेषण के क्रम में देश की दो सबसे पुरानी और कट्टर वैचारिक विरोधी पार्टियों ने हाथ मिलाना स्वीकार कर लिया है। अब कांग्रेस और वामपंथी दल परस्पर सहयोग से तृणमूल कांग्रेस के किले को भेदने का प्रयत्न करेंगे। 

इसी सन्दर्भ में थोड़ा इतिहास का पन्ना पलटते हैं, १९४२ में भारत छोडो आंदोलन में भारत के लगभग सभी दल आंदोलन में कांग्रेस का समर्थन कर रहे थे सिवाय मानवेन्द्र नाथ रॉय की कम्युनिस्ट पार्टी के। १९४७ में भारत को आज़ादी मिली और पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारत सरकार का गठन हुआ। यहाँ उद्धृत करना समीचीन होगा की नेहरू का रुख रूस की साम्यवादी सरकार के अनुरूप था, जिसका दृष्टान्त योजना आयोग जैसी  रूस से प्रभावित अनेक तत्कालीन सस्थाओं की स्थापना में निहित है। नेहरू उदारवादी साम्यवाद अर्थात भारतीय समाजवाद से प्रभावित थे। अतः उस कालखंड में कांग्रेस और कम्युनिस्ट दलों में परस्पर साम्य था। बाद में कांग्रेस और कम्युनिष्ट दलों का सम्बन्ध नरम गरम बना रहा। २००४ के लोकसभा के आम चुनावो में कम्युनिस्ट दलों के समर्थन से कांग्रेस ने डॉ मनमोहन सिंह ने सरकार बनायी। किन्त्तु कांग्रेस के अमेरिका से परमाणु समझौते के रुख से नाराज कम्मुनिष्ट पार्टियों ने अपना समर्थन वापस ले लिया, हालाँकि सरकार ने अपना कार्यकाल पूर्ण किया लेकिन उस घटना के परिणामस्वरूप आजतक कांग्रेस और कम्युनिष्ट दल रेल की दो पटरियों की तरह चलते आये हैं। पुनः इन दलों के गठबंधन ने यह सिद्ध कर दिया है की चुनाव दो विपरीत धड़ों को भी मिला सकता है।  चुनाव के बाद ये स्पष्ट होगा की ये दोस्ती कितने दिनों की है।  जनता के पास समीक्षा करके जनादेश देने का उचित समय है।


© अमित तिवारी

(ये लेख 30 मार्च 2016 को लिखा गया)



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